कसक

 कुछ है नहीं हमारे दरमियाँ

बस फासले हैं, 

अब तो अरसा भी हो चला 

के याद आऊं तुम्हें मैं

पर कुछ दिन से कसक हो रही है

तुम्हें देखने की, आवाज़ सुनने की।
पर मेरा स्वाभिमान मुझे रोक रहा है 
तुम तक पहुंचने से
इसलिए पुराने सँभाले हुए खत पढ रही हूँ 
तुम्हें महसूस करने के लिए
वो लम्हे फिर से जीने के लिए 
जो मेरे लिए खास बन गए थे
यूँ कह लो के तड़प दोनों के ओर से थी
बस हमारे एक होने का सही समय 
हमारे साथ होने पर नहीं था
अब वक्त को रोकने का मन करता है 
पर तुम कहीं नज़र नहीं आते...

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