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भाव : रावण

शिव का दिया वरदान तो खुद शिव भी नहीं तोड़ सकते, तो रावण को तो अमर होना ही था । ग़लत बतायी गयी है इतिहास में कहानी, वरना जो रावण को समझ लेता, वो उसे मिले हुए उस वरदान की बारीकियों को भी समझ जाता । भगवद गीता में कहते हैं कि, रूह विराम ले ले कर अपनी लंबी यात्रा की समाप्ति करती है । और शरीर उस यात्रा में मात्र कुछ छन व्यतीत करने वाले विश्रामालय का दायित्व निभाता है ।  रूह का कर्तव्य है यह यात्रा करना,  क्यूँकि इसी यात्रा में उसे अपने अंतिम गंतव्य तक पहुँचना होता  है ।  और इसी वजह से मनुष्य का शरीर केवल एक साधन है सही मार्ग पकड़ने का ।  इस सफ़र में रूह की लड़ाई उन जागरूक होने वालीं भावनाओं से हैं जो मोक्ष प्राप्ति की प्रक्रिया में बाधा बनती है ।  रूह को शरीर की ज़रूरत तब तक है जब तक वो अपने सारे भाव को त्याग कर खुद में लीन होकर ईश्वर में विलीन ना हो जाए।।  रावण भले ही दशानन बताया गया हो,  किंतु वो है अनेक । वह एक असुर के रूप में नहीं एक भाव के रूप में अमर है । वह क्रोध और अहंकार के भाव में हर रूह पर शासन करता है । शायद इसीलिए कलियुग में मोक्ष प्राप्ति का

निस्तब्धता.

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अंधकार   से   मित्रता   थी   मेरी , इसीलिए   पूर्णिमा   की   वो   हसीन   शाम   का   संदेश   समय   से   पहले   मिल   गया। उन   काले   बादलों   को   रोशनी   देता   हुआ   मेरा   काँच   का   ग्लास   मानो   चाँद   का   काम   कर   रहा   था , इसीलिए   शबाब   के   रहते   शराब   का   चयन   करना   उचित   लगा   मुझे।   साँझ   का   समय   खिड़की   से   चंद्रमा   को   ताकने   में   निकल   रहा   ही   था   के ,  ग्लास   में   रखी   वह   मनोज्ञ   अंगूरी   मदिरा   ने   मुझे   मोहित   कर   दिया।   ठंडी   हवा   के   झोंके   सुधबुध   होश   गवाने   पर   मजबूर   कर   रहे   थे , और   मेरा   मदहोश   मन   तारों   की   अनुपस्थिति   से   निराश   हो   रहा   था   । काफ़ी   गंभीर   ख़याल   में   खो   गयी   थी   उस   शाम ,  वरना   साधारण   स्तिथि   में   एसे   विचार   अक्सर   बेतुखे   लगते   हैं   ।   दोष   नशे   का   नहीं ,  उस   पार   मौजूद   वह   दृश्य   का   था , जिसका   प्रदर्शन   तो   पूरी   कायनात   भी   ना   कर   पाती   । मेरी   बंज़ारी   रूह   उस   वातावरण   में   एसी   सम्म