ज़ख़्म

ज़ख़्म हैं बहुत सारे
जो हैं चाँद से भी गहरे
खूँदेड देती हूँ जिन्हें रोज़ आना
बिखरते हैं जो बारूद की तरह
रौंध के रख दिया जाता है जिस्म को जेसे
हवाओं के झोखे किसकिसाहट कर देते हों वैसे
कहने को तो आबाद होना चाहती है यह रूह
लेकिन जज़्बात की क़दर ना करने वालों ने तो बिकवा दी है मेरी आबरू
कहते हैं बुरा वक़्त देखके नहीं आता
अच्छा वक़्त ज़्यादा देर ठहर नहीं पाता
बस एक कश्मकश भरी ज़िंदगी मिली हैं
कहीं ग़म तो कहीं उल्लास की कलियाँ खिली हैं
ज़ख़्म का तो कोई सहचर नहीं होता
सन्नाटे में ही आता और सन्नाटे में ही खोता
घाव भरने में तो वक़्त बहुत लगेगा
फिर कब तक मेरा दिल ये अकेलापन सहेगा
भूल जाना है कड़वे अतीत को बिना किसी विलम्ब के
जहाँ सिर्फ़ ख़ुशियों का हो बसेरा और ग़म मँडरा भी ना सके । 

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